Naukarshyahi Ke Rang
Shortlisted | Book Awards 2021 | Translated into Hindi
Naukarshyahi Ke Rang (Nokarshaiche Rang)
आमतौर पर हमारे समाज में नौकरशाही में काम करने वाले लोगों के प्रति सोच अलग-अलग होती है। वहीं नौकरशाहों को सामान्य जनता के बारे में आस्था नहीं होती। जनता और नौकरशाही में विश्वास का रिश्ता बनने का सतक प्रयास ही लेखक का मूल लक्ष्य व कर्तव्य है। इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने आम जनता व नौकरशाही की कार्यप्रणाली के अंतर को कम करने का प्र्रयास किया है। नौकर स्याही को संवेदनशील रहना आवश्यक है। जनता की समस्याओं के बारे में सजग होना आवश्यक है। इसके अलावा जनता के साथ संवाद बनाना भी अनिवार्य है। लेखक ने इन्हीं आदर्शों पर हमेशा कार्य करने की पूरी कोशिश की है, जिसकी कुछ झलकियाँ इस किताब में प्रस्तुत की गई है।
नौकरशाही में काम करने वाले लोग किसी दूसरे ग्रह से अवतरित नहीं होते। समाज में ही तैयार हुए वे हाडमांस के आदमी ही होते हैं। फिर भी सामान्य जनता के मन में नौकरशाही के प्रति अपनापन नहीं लगता और नौकरशाही को सामान्य जनता के बारे में आस्था नहीं होती। यह ऐसा क्योंकर होता है? नौकरशाही यानि केवल भ्रष्टाचार, गैरजिम्मेदारी, अकार्यदक्षता क्या इतना ही है? और समाज की भी कुछ गलती नहीं होती ऐसा थोड़े ही है? फिर क्या किया जाए कि इक्कीसवी सदी के भारत की आशा-आकांक्षा साकार कर दिखाने वाला प्रशासन तैयार होगा? गरीबी, विषमता, विकास का असंतुलन दूर किया जा सकेगा? मंत्रालय, सचिवालय, विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों में निश्चित रूप में होता क्या है?
देश में और दुनिया भर में कई देशों की राजधानियों में भारत सरकार के सलाहकार के रूप में और राजदूत के रूप में कई भूमिकाएं यशस्वी ढंग से निभाते हुए सामाजिक प्रतिबद्धता का भान रखकर चिंतन, मनन और सृजन करनेवाले ‘विश्व-नागरिक’ ज्ञानेश्वर मुले, अपने आवरण से बाहर आकर पाठकों से हौले हौले संवाद स्थापित करते हैं।
ज्ञानेश्वर मुले, भारतीय विदेश सेवा में उच्चाधिकारी रहे। वे प्रखर कवि, लेखक हैं। अपने जीवन के चुनौतीपूर्ण मोड़ों से आगे बढते हुए उनके संवेदनशील मन ने जो अनुभव किया वह ‘नौकरस्याही के रंग’ में विविध छटाएं बिखेर रहा है। प्रशासन के कठोर और नीरस दुनिया में उनका बयान सुखद बयार की तरह शब्दबद्ध हुआ है। स्थितियों और चुनौतियों की आग में तपकर उनके अनुभव दमकते शब्दों में मुखुरित हुए हैं। ये शब्द पाठकों को विदेशी जन-जीवन, व्यक्ति-प्रकृति, भाषा-परिवेश और दिन-दुनिया की यात्रा पर ले जाते हैं। कभी संस्मरण, कभी आत्मकथा, कहीं कहानी-सी पठनीयता पिरोकर लेखक ने इसे विशिष्टता सौंपी है।
महाराष्ट्र के सांगली जिले में बचपन, और शिक्षा कोल्हापुर में। मातृभाषा मराठी। हिंदी, अंग्रेजी में भी कविता और लेख प्रकाशित। मराठी में जोनाकी तथा दूर राहिला गांव काव्य संग्रह चर्चित। हिंदी में ऋतु उग रही है, सुबह है कि होती नहीं, मन के खलिहानों में, शांति की अफवाहें और उर्दू में अंदर एक आसमां काव्य संग्रह। सन 2000 में सुबह है कि होती नहीं काव्य संग्रह प्रकाशित। ‘मराठी कविता और युद्धोत्तर जापानी कविता का तुलनात्मक अध्ययन’ के लिए मानव संसाधन मंत्रालय भारत से ‘सीनियर फैलो’ घोषित।
आप मराठी तथा हिंदी के पुरस्कार प्राप्त कवि हैं। 1983 से भारतीय विदेश सेवा में उच्चाधिकारी। बाद में मंत्रिमंडल सचिवालय में सलाहकार तथा संयुक्त सचिव, विदेश सेवा से सचिव के रूप में निवृत्त होते ही राष्ट्रपति महामहिम कोविंद जी ने उनकी नियुक्ति राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में की। लोग आपको जनता का राजदूत, पासपोर्ट मैन ऑफ इंडिया, जिप्सी, भारतीय भाषा संस्कृति का दूत, सृजनशील जगन्मित्र आदि उपाधि से पुकारते हैं।
जापान के बाजार में फिलीपींस या मेंक्सिकन आम दिखाई देते। ये आम भारतीय आमों की तुलना में कम स्वादिष्ट तो थे ही, पर साथ ही दिखने में पिचके और सामान्य होते। इसके अतिरिक्त सुगंध में पासंग के भी बराबरी न कर पाते। इसके विपरीत हमारे भारतीय आम स्वादिष्ट और सुगंधित। दिखने में निरोगी। पर हमारे आम यहाँ आते नहीं थे -- आ नहीं सकते थे। इसके विपरीत फालतू आम शेखी बघारते होते। जापान में हमारे घर आम आते, वे गलती से और सीमा शुल्क विभाग की नजर बचाकर लाए हुए। थोड़े में तस्करी से। जैसे आम की बात उसी तरह चावल (बासमती) की बात। भारत का चावल सस्ता होने के बावजूद जापान में रोक थी। आम के लिए ‘फ्रूट फ्लाय’ नामक इल्ली संक्रामक होती है, जापानी खेत को इसलिए चावल को संरक्षण चाहिए इन कारणों से रोक। मैंने इन दोनों के निर्यात जापान को हो, इसलिए प्रयत्न करने की चुनौती स्वीकार की।
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