Lachchhi
Nominated | Book Awards 2021 | Hindi Fiction
Lachchhi
लच्छी एक किरदार की कहानी है और एक समय की भी। एक शहर की कहानी है और एक समाज की भी। अल्मोड़ा के माल रोड से सटे हुए 150 साल पुराने विश्वनाथ निकेतन में मेरी बतौर नातिनी कूच की कहानी भी। यह गृहस्थ जीवन और आराध्य आस्था के प्रति समकालीन भावनाओं के चूर होने की कहानी तो है ही। और समय के आँगन में उसी चूरे की रंगोली की कहानी भी है लच्छी। भारतीय समाज जैसा जो कुछ भी है और उसमें संयुक्त परिवार की जैसी भी कल्पनाएँ हैं, लच्छी वहीं से शुरू होती है और वहीं पर ख़त्म भी। यहाँ पूर्वजों की फ़ोटो दीवार पर लटके हुए बोलती तो नहीं हैं पर देखती ज़रूर हैं। इन दीवारों के बीच उनके दरवाज़ों की छह किलो की चाबी के आदान-प्रदान की क्रियाओं ने आने-जाने का एक नया मानचित्र बना डाला है, घर के मानचित्र से अलग और जिस शहर में यह घर है, उसकी सर्दियों में भटकते हुए गपोड़ियों के मुँह से निकलने वाली गप्पों की कहानी है लच्छी। लच्छी की कहानी कुमाऊँनी समाज के अतीत के प्रति उदासीनता पर प्रहार भी करती है और उसका आहार भी बन पड़ती है। कहानी लच्छी के अल्हड़पन और दायित्वपूर्ण सयानेपन के बीच के रास्ते के सफ़र में पाठकों का परिचय ‘जटिलतावाद' से कराती है। एक ऐसा विमर्श जो लच्छी की लच्छीमयता, अल्मोड़ा की अल्मोड़ियत और मध्यमवर्गीय जीवन की माध्यमिकता के पनपने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। अगर सत्य का सबसे नज़दीकी अहसास व्यंग्य और मर्म के आभास से हो सकता है तो लच्छी बदलते समाज पर एक मार्मिक व्यंग्य की रचना है।
लच्छी एक किरदार की कहानी है और एक समय की भी। एक शहर की कहानी है और एक समाज की भी। अल्मोड़ा के माल रोड से सटे हुए 150 साल पुराने विश्वनाथ निकेतन में मेरी बतौर नातिनी कूच की कहानी भी। यह गृहस्थ जीवन और आराध्य आस्था के प्रति समकालीन भावनाओं के चूर होने की कहानी तो है ही। और समय के आँगन में उसी चूरे की रंगोली की कहानी भी है लच्छी। भारतीय समाज जैसा जो कुछ भी है और उसमें संयुक्त परिवार की जैसी भी कल्पनाएँ हैं, लच्छी वहीं से शुरू होती है और वहीं पर ख़त्म भी। यहाँ पूर्वजों की फ़ोटो दीवार पर लटके हुए बोलती तो नहीं हैं पर देखती ज़रूर हैं। इन दीवारों के बीच उनके दरवाज़ों की छह किलो की चाबी के आदान-प्रदान की क्रियाओं ने आने-जाने का एक नया मानचित्र बना डाला है, घर के मानचित्र से अलग और जिस शहर में यह घर है, उसकी सर्दियों में भटकते हुए गपोड़ियों के मुँह से निकलने वाली गप्पों की कहानी है लच्छी। लच्छी की कहानी कुमाऊँनी समाज के अतीत के प्रति उदासीनता पर प्रहार भी करती है और उसका आहार भी बन पड़ती है। कहानी लच्छी के अल्हड़पन और दायित्वपूर्ण सयानेपन के बीच के रास्ते के सफ़र में पाठकों का परिचय ‘जटिलतावाद' से कराती है। एक ऐसा विमर्श जो लच्छी की लच्छीमयता, अल्मोड़ा की अल्मोड़ियत और मध्यमवर्गीय जीवन की माध्यमिकता के पनपने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। अगर सत्य का सबसे नज़दीकी अहसास व्यंग्य और मर्म के आभास से हो सकता है तो लच्छी बदलते समाज पर एक मार्मिक व्यंग्य की रचना है।
भूमिका जोशी ज़बान से लखनऊवा और दिल से अल्मोडिया हैं। दिमाग से फिलहाल अमरीका के येल विश्वविद्यालय में ऐन्थ्रोपॉलॉजी की शोधकर्ता और पीएच. डी. छात्र हैं। अपनी रूह के चार हिस्से करने का सपना देखती हैं ताकि एक अल्मोड़ा में लच्छी के कमरे में, एक लखनऊ में माँ की रसोई में, एक लन्दन की सड़कों पर और एक दिल्ली के दोस्तों के साथ बस सके। सपना पूरा करने तक पढ़ने और पढ़ाने का आनन्द ले रही हैं। यह उनकी पहली प्रकाशित रचना है।
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