वे लोग
| Book Awards 2022 | Creative Writing in Hindi (Fiction & Poetry)
वे लोग
अम्मा तो सोचने समझने वाली इंसान थीं फिर भी बच्चे पैदा होते रहे मरते रहे। जैसे बच्चे पैदा करना भी कोई मशीनी काम हो।अम्मा इतने बच्चों को कैसे मरते देखती रह सकीं?
‘‘वे लोग’’ एक ही परिवार के गाँव और शहर में रह रहे सदस्यों के बीच रिश्तों के ऊहापोह की कहानी है। गाँव में अम्मा बप्पा हैं-बाबा, दादी, ताऊ, तायी, और उनके बच्चे हैं। अम्मा की तरह शहर से गाँव पहुँच गयी उनकी भतीजी बिट्टो है जिसकी शादी उसी परिवार के बेटे रज्जन से हुई है। गाँव से निकल कर शहर में सफल जीवन जीने वाले वसुधा और चंदर हैं। वसुधा का परिवार और चंदर की पत्नी वीना है-आसपास के और लोग हैं।
वसुधा को कहानी का नैरेटर माना जा सकता है। मूल कथा अम्मा और बिट्टो की है, मगर कहानी वसुधा के माध्यम से खुलती है। वसुधा बहुत छोटी थी तब अम्मा ने उस को मामा के पास पढ़ाई के लिए लखनऊ छोड़ दिया था। बरसों बाद चंदर को वसुधा अपने पास शहर ले आयी थी-पढ़ा लिखा कर इंसान बनाने के लिए। अक्सर वसुधा से चंदर देर तक बातें करता रहता-उन बातों में उसके सपने होते और उन सपनों में नब्बे प्रतिशत अम्मा होती-उस सुख की बातें होती जिन्हें अपने सफल हो जाने के बाद वह अम्मा को देना चाहता था। बहुत सफलता पायी चंदर ने पर तब तक सपने धुँधले हो गए। रहने सहने के तौर तरीक़े अलग हो जाएँ तो अक्सर दूरियाँ आ जाती हैं और रिश्ते रीते लगने लगते हैं।
बहुत साल पहले कभी अम्मा ने वसुधा से कहा था ‘‘बेटा तुमने और दद्दा ने तो हमें गवईं गाँव के श्राप से मुक्त कर दिया।’’ अब इतने सालों बाद अक्सर वसुधा सोचती है की अम्मा तो और अधिक श्रापग्रस्त हो गयी थीं-उस अंधेरे गाँव में अकेली और परित्यकत। वे ज़िंदगी की दौड़ में अपने बच्चों से बहुत पिछड़ चुकी थीं। इतनी ज़िंदगी वे गाँव में रह कर गाँव में अपने होने को नकारती रहीं। कितनी अजीब बात थी की जब उनके दोनों बच्चे शहर में सफल जीवन जीने लगे तब उनके हालातों ने पूरी तरह से उन्हें गाँव का बना दिया था। उनके पास सारे विकल्प ख़त्म हो चुके थे।
वसुधा अक्सर अम्मा की तरफ देखती रहती है-सोचती रहती है कि ज़िदगी में सारी संभावनाओं के ख़तम हो जाने पर ख़ुद को कैसा लगता होगा? कैसा लगता होगा जब कोई सपना बचा ही न हो? तब शायद मन के काठ हो जाने के अलावा कुछ भी तो शेष नहीं रहता। वसुधा जानती है कि अम्मा धीरे धीरे काठ बन गयी हैं-घर में रखी मेज़ कुर्सी खिड़की दरवाज़ो की तरह।
अम्मा के निधन पर चंदर बहुत रोया था। मोह के बंधन पूरी तरह से टूट कहाँ पाते हैं। अम्मा के जीवित रहते वह गाँव से दूर भागता रहा-और अब? वह हाथ खोल कर दान पुण्य और पूजापाठ पर खर्च कर रहा है।
‘‘चंदर को हो क्या गया है? ऐसे करेगा तो यह गाँव वाले रस्मों रिवाज के नाम पर पागल बना देंगे। इसे समझाओ वीना।’’वसुधा ने कहा था।
‘‘कर लेने दीजिए दीदी उसे सब कुछ अपने मन की शांति के लिये।’’ वीना की आंखों में आंसू भरने लगे थे।‘‘चंदर अम्मा से माफी मांगना चाह रहा है।’’
कितनी अजीब बात है कि अक्सर इतने दमख़म के साथ जीने वाला इंसान भी अपने आप को ख़ुद भी नही जानता। जानता होता तो जीते जी अम्मा की इस तरह से अवहेलना न करता-जानता होता तो अब इतना तड़प कर न रोता। चंदर को न तब होश था जब अम्मा जीवित थीं और न अब होश है जब वह उन के नाम पर कुछ भी करने को तैयार है। इतना दुःख-इतनी बेचैनी-इतना ख़र्च-कुछ भी तो हासिल नहीं।
डॉक्टर बनने का सपना देखने वाली सोलह साल की बिट्टो को नियति ने गाँव पहुँचा दिया था। अम्मा भावहीन मुद्रा में घर के काम करती रहती। उन्हें देख कर कभी समझ नहीं आता क़ि वे ख़ुश हैं या दुखी हैं। पर पूरे उपन्यास में बिट्टो की चोट और उसका दर्द विद्रोह भरे स्वर में मुखर है। पिता और पति दोनों से उसकी नाराज़गी है। शादी हो कर एक बार अपने घर से बाहर निकली तो फिर पलट कर दुबारा उस घर में नहीं गयी-अपनी माँ के निधन तक पर नहीं। ‘‘मम्मी तो अब वहाँ मिलेंगी नहीं तो फिर किसके लिए जाऊँगी। पापा को मम्मी के मरने के पहले मुझसे छुटकारा चाहिए था तो कह देना उनसे की मैंने उन्हें पूरी तरह से मुक्त कर दिया।’’
बेटा पैदा होने के बाद उसका वसुधा से यह कहना, ‘‘जीजी मुझे बुआ की तरह बच्चे पैदा करने वाली मशीन नहीं बनना है।’’
बिट्टो के पति की शहर में नौकरी लगने से वह बहुत ख़ुश थी पर उसे गाँव में छोड़ कर उनके अकेले जाने पर उसका अपनी सास से ग़ुस्से में यह कहना, ‘‘छोड़ कर नहीं गए हैं अम्मा-आप लोगों की सेवा के लिए गाँव में फेंक कर गए हैं। पहले अपने स्वार्थ के लिए हमारे बाप ने हमें इस अंधेरे गाँव में फेंका-अब पति ने!’’ उसने छप्पर के नीचे खेल रहे रघु की तरफ़ देखा था, ‘‘किसी दिन यह भी फेंकेगा हमें।’’
पति के निधन के बाद हर समय बेटे की आँख में अपने लिए ऊब और झुँझलाहट देख कर बिट्टो ने बुआ के ख़ाली पड़े घर में अकेले रहने का निर्णय ले लिया था। बिट्टो की बहु पार्वती है जो बात बात में न्याय के लिए अपने पति से भिड़ती है। बिट्टो को अच्छा लगता है-इंसान है तो इंसान की तरह सोचती और बोलती तो है।
जब से चंदर ने गाँव आना फिर से शुरू किया है तब से वह अजब तरीक़े से यहाँ से जुड़ाव महसूस करने लगा है।‘‘अगर सरकार में बैठे लोग थोड़ी सी सही प्लानिंग कर लें तो इन गाँवों को चमन बनाना कठिन है क्या?’’चंदर ने वसुधा की तरफ़ देखा था,‘‘कुछ भी नहीं करना दीदी बस बीच से ‘‘मिडिल मैंन’ हटाना है-खेती और चिकन और जर्दोज़ी के काम से।’’ उसकी आँखों में एक सपना है।
सुमति सक्सेना लाल
लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद उसी वर्ष से वहीं के एन. एस. एन. महाविद्यालय में लगभग चार दशक तक दर्शन शास्त्र का अध्यापन। धर्मयुग मे “चौथा पुरुष” शीर्षक से पहली कहानी छपी थी जो काफी समय तक चर्चित रही और अनेकों भाषाओं में इस का अनुवाद हुआ। लगभग पाँच वर्षों तक धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका आदि साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने के बाद लेखन में लम्बा मौन। 1981 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में “दूसरी शुरुआत” शीर्षक से एक कहानी छपी थी। प्रख्यात लेखक श्री महीप सिंह ने इस कहानी को अपनी संपादित पुस्तक 1981 की “सर्वश्रेष्ठ कहानियां” में सम्मिलित किया था।
सन् 2005 से पुनः नियमित लेखन। हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं कथादेश, हंस, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य आदि में अनेकों कहानिया प्रकाशित हुई हैं। इसी बीच पुस्तकें भी प्रकाशित होती रहीं।
1. वे लोग. (उपन्यास) भारतीय ज्ञानपीठ, 2021
2. ठाकुर दरवाज़ा (उपन्यास) अमन प्रकाशन-2019
3. फिर...और फिर (उपन्यास) सामयिक प्रकाशन-2019
4. होने से न होने तक (उपन्यास) सामयिक प्रकाशन-2013
5. दूसरी शुरूआत (कहानी संग्रह) पैन्गुइन बुक्स-2011.
6. अलग अलग दीवारें (कहानी संग्रह) भारतीय ज्ञानपीठ-2009
उपन्यास ‘फिर और फिर’’ को मनोरमा ईयर बुक ने २०१९ के साहित्यिक प्रकाशन की सूचि में सम्मिलित किया था।
ऑनलाइन पुस्तकें
होने से न होने तक-मात्रुभारती
फिर-और फिर-नोटनल
दूसरी शुरुआत-पेंग्विन बुक्स
अनुवाद
अनेक कहानियों का बंगला, अंग्रेज़ी, पंजाबी, उर्दू और मराठी में अनुवाद छपा है। उपन्यास ‘होने से न होने तक’’ का सुनीता डागा ने मराठी में अनुवाद किया है। पुस्तक सृजनसम्वाद प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशनाधीन है और प्रेस में है।
विण्डस्क्रीन से छन कर धूप चंदर के चेहरे पर पड़ रही है। उसने मेरी तरफ़ देखा था‘‘जब गांव से गया था तब छोटा था। गांव जैसा था वैसा ही हमें समझ आता था। कभी सोचा ही नहीं कि यहां सड़के नहीं, बिजली नहीं, प्रापर स्कूल और अस्पताल नहीं। कभी मन में यह भी नहीं आया था कि यहां यह सब क्यों नहीं है? कोई गुस्सा, कोई अफसोस, कोई ईर्ष्या-कुछ भी नहीं। अब मुझे सब कुछ परेशान कर रहा। यहां के हालात-नेताओं और अफसरों का लैक आफ कन्सर्न और यहां के लोगों के एटीट्यूड-हर ज़्यादती को झेलने के लिए तैयार।’’
Review वे लोग.